Wednesday 1 February, 2012

चुनाव की प्रासंगिकता

इस वर्ष एकबार फिर हमारे प्रदेश में चुनाव हो रहे है. हमे बहुत गर्व महसुश होता है की हम एक सबसे बरे लोकतान्त्रिक देश के नागरिक है , और हमे चुनाव आयोग और अन्य के द्वारा आगाह किया जाता है की हमे इसमे जरुर वोट करना चाहिए. पिछले कुछ दसको में इन चुनावो को उचित रूप में सम्पादित करने के लिए बहुत कुछ कठोर कदम उठाये गए और नीतिया बनायीं गयी है, जिसके सुपरीराम हमे बिहार में देखने को भी मिला है..पर देश के सबसे बरे प्रदेश की वर्तमान विकल्प हीनता देखके यह लगता है की यहाँ चुनाव तबतक बेमानी होंगे जबतक इसमे बहुआयामी सुधारो को लागु नहीं किया जाता है. विशिष्ट वूर्ग के ऐसे सतालोलुप लोगो में से प्रतिनिधियों की चुनने की प्रक्रिया चाहे जितना भी तटस्थ क्यों न हो जाये , भविष्य अंधकारमय ही रहने की संभावना दिखती है..एक ओर जहा पूर्व मुख्यमंत्री और सत्ता के प्रमुख दावेदार नौकरी पाने और मुफ्तखोरी का नायब तरीका ( बलत्कार से प्रभावित युतियो को नौकरी और अधिकतर चीजे मुफ्त) देने का वादा करने में लगे है तो दूसरी तरफ हमारे देश के भावी युवराज को भी मंजिल प्राप्ति का बस एक ही उपाय दीखता है की जब किसी धरम विशेष के छेत्र में जाये तो दाढ़ी जरुर बढ़ी होनी चाहिए और जरुरत परे तो किसी को भुलचुकी जाति का परिचय कराया जाये..आखिर चुनाव आयोग के पदाधिकारियों को इससे क्या , आखिर वो नौकरशाह है और उनका काम बस लाल फितासाही करना है, अब भले ही हमे चुनाव नागनाथ और सापनाथ में से ही क्यों न करना हो, वो हमारी कमाई का एक बरा हिस्सा और समय इस महानाट्य में जरुर स्वाहा कर देगा, पिछले कुछ समय से उसने एक और प्रचलन सुरु किया है , प्रतिभागियों के द्वारा अपनी सम्पति की घोषणा..उन्हें देखकर लगता है की हमारे प्रतिनिधि कितने योग्य और कर्मठ है. हर वर्ष उनकी सम्पति दुनी-चगुनी नहीं सौगुनी-दोसौगुनी बढ़ जाति है पर बेचारो का हाल इतना बुरा रहता है की उन्हें १६ रूपया वाली थाली से पेट भरना परता है और टेलीफ़ोन का बिल बाकि रह जाता है, जबकि प्रदेश की अमीर और असभ्य जनता इतनी लालची और चोर है की उसे कन्ट्रोल करने में हमारे प्रतिनिधियों को विविध प्रकार के उपाय, टैक्स , विभाग, इंस्पेक्टर आदि रखने परते है...पर हद यह की तब भी उनमे से अधिकतर 5 से 10 प्रतिशत मुनाफा कमा ही लेता है...कितने शर्म की बात है !

चलो भाई ये तो हमारे नसीब में है की , साशक हमेसा एक विषेस वर्ग का होता है या हो जाता है , पर यह क्या हममे से अधिकतर लोग जो गावों में रहते है जिनके जिन्दगी में ख़ुशी के ये जो कुछ पल होते है जब हम सुगन्धित पर्चे और पुती हुयी दीवाल देख के और बहन जी की कृपा से हाथी का सूढ़ देख लिया करते थे उसे ढकने के लिए करोणों रुपये फुक डाले इन नौकेरसाहो ने..यह देखकर मुझे फ्रांस के वे तानासाह याद आ रहे है जिन्होंने भूख से तरप रही जनता से कहा था की तुम्हे रोटी नहीं मिलती तो केक क्यों नहीं खा लेते.

यह सच है की , लोकतंत्र शासन की अबतक की सबसे अच्छी प्राणली है, पर अगर हमे इसे बनाये रखना है तो हमे वोट डालने जैसे खोखले प्रोपगंडा की नहीं बल्कि न्यूनतम सचिक योग्यता , महिला विधेयक आदि प्रायामी परिवर्तनों को शिघ्र्ताशिघ्र लागु कराने का  प्रयास करना होगा.      

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